भारतीय संविधान की प्रस्तावना

भारतीय संविधान की प्रस्तावना

हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष , लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय विचार अभिव्यक्ति विश्वास , धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सभी में व्यक्ति की गरिमा तथा राष्ट्र की एकता, अखंडता को सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढाने के लिए  दृढ संकल्पित होकर अपनी इस संविधान सभा में आज दिनांक 26 जनवरी 1949 को एतद द्वारा संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मसमर्पित करतें है ।

 

 

मूलतत्व की प्रस्तावना

1. शक्ति का स्त्रोत 2. राज्य की प्रकृति या स्वरुप 3. राज्य का उद्देश्य एवं 4. तिथि
भारतीय संविधान की प्रस्तावना की भाषा आस्ट्रेलिया  के संविधान से ली गई, जवाहर लाल द्वारा प्रस्तुत उद्देश्य प्रस्ताव को संविधान निर्माण के उपरांत संविधान की मूल भावना को संक्षेप में प्रदर्शित करने वाली संविधान की प्रस्तावना के रूप में स्वीकार किया गया ।

 

संविधान के 4 मूल तत्व है

1. शक्ति का स्त्रोत : प्रस्तावना का आरम्भ “हम भारत के लोग”  इस वाक्य से होता है, यह भारतीय राज्य की सार्वभौमिकता तथा अंतिम शक्ति के जनता में निहित होने को प्रदर्शित करता है

2. राज्य की प्रकृति या स्वरुप  : मूल प्रस्तावना में भारत को एक सम्प्रभु एवं लोकतान्त्रिक गणराज्य बताया गया है यद्यपि संविधान में सामाजवाद, तथा धर्म निरपेक्षता के तत्व पहले से ही मौजूद थे तथापि 42 वें संविधान संशोधन 1976 के द्वारा इसमें समाजवादी एवं पंथ निरपेक्ष शब्द जोड़े गए

3. राज्य का उद्देश्य : राज्य का उद्देश्य अपने समस्त नागरिकों को न्याय, स्वतंत्रता तथा समता दिलाना, साथ ही उनके मध्य बंधुत्व की भावना का विकास करना था

4. तिथि : प्रस्तावना से हमें संविधान निर्मित होने की तिथि पता चलती है यद्यपि ऐतिहासिक महत्व के कारण 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू किया गया परन्तु इसके निर्माण की तिथि 26 नवम्बर 1949 रही




प्रस्तावना के मूलतत्व में समाहित शब्दों का अभिप्राय

सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न

सम्प्रभु का आर्थ है की कोई राज्य अपने सभी आंतरिक व बाह्य निर्णयों के लिए पूर्णतः स्वतंत्र है, इसके दो पक्ष है :- 1. आंतरिक संप्रभुता 2. बाह्य संप्रभुता ।
आंतरिक संप्रभुता जहाँ अपने क्षेत्र में निर्णय लेने की क्षमता दर्शाती है वहीँ बाह्य संप्रभुता का अर्थ विश्व के अन्य राज्यों के द्वारा उस राज्य को सम्प्रभु स्वीकार करना होता है ।
भारत दोनों ही दृष्टि से एक सम्प्रभु राष्ट्र है, यद्यपि राष्ट्रमंडल की सदस्यता (मई 1949), संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता तथा परमाणु करार 2008 आदि के आधार पर इसकी संप्रभुता पर प्रश्न उठायें गए है परन्तु यह आरोप निराधार है ।
समाजवादी

समाजवादी का अर्थ ऐसा राज्य जिसके समस्त साधनों पर सार्वजनिक स्वामित्व होता है अतः निजी संपत्ति की अवधारणा को निरस्त किया जाता है, यद्यपि कार्ल मार्क्स का यह साम्यवादी समाजवाद भारत में नहीं अपनाया गया।
भारत में गांधी वादी समाजवाद को स्वीकार किया गया अतः भारत लोकतान्त्रिक समाजवाद में विश्वास करता है ।

पंथ निरपेक्ष

पंथनिरपेक्षता या धर्मनिरपेक्षता का अर्थ राज्य के धार्मिक मामलों से अलगाव होता है, अर्थात राज्य का ना कोई धर्म होगा और ना ही राज्य किसी धर्म के पार्टी प्रश्रय या भेदभाव की निति अपनाएगा ।
भारतीय संविधान में पंथनिरपेक्षता शब्द को शामिल किया गया चूँकि धर्म “धृ” धातु से बना है जिसका अर्थ होता है धारण करना अतः धारण करने योग्य नैतिक नियमों के बिना देश में स्वस्थ राजनीति की कल्पना नहीं की जा सकती।
लोकतांत्रिक 

भारत लोकतान्त्रिक देश है तथा भारत का लोकतंत्र अपनी संप्रभुता जनता में निहित करता है । नियमित चुनाव, व्यस्क मताधिकार इसके लक्षण है ।
गणराज्य

भारत को लोकतंत्र के साथ गणराज्य भी घोषित किया गया है, अर्थात राज्य का प्रमुख वंशानुगत ना होकर निर्वाचित होगा शासन की नियम के तहत सभी को (बहुसंख्यक एवं अल्पसंख्यक) अवसर की समानता होगी ।
न्याय 

प्रस्तावना में नागरिकों को 3 प्रकार के न्याय देने की बात निहित है जिन्हें सुनिश्चित करने के लिए मौलिक अधिकार, नीति निर्देशक तत्व तथा अन्य उपबंधों में प्रावधान किये गए है ।
स्वतंत्रता
संविधान निर्माताओं ने स्वतंत्रता के महत्व को विशेष रूप से उल्लेखित किया । प्रस्तावना नागरिकों के लिए 5 प्रकार की स्वतंत्रता की बात करती है जिनका विस्तार मौलिक अधिकारो के अनुसूची 19-22 तथा 25-28 में किया गया है ।
समता

प्रस्तावना में प्रतिष्ठा व अवसर की समता की बात कही गई है।  मौलिक अधिकारों के तहत किसी भी प्रकार के भेद-भाव का निषेध किया गया है, तथा अश्पृश्यता जैसी बुराइयों को जड़ से समाप्त करने के उपबंध है — अनुसूची 16 अवसर की समता को सुनिश्चित करता है ।
बंधुता

देश में बंधुता को बढाने के पीछे 2 तर्क आधार दिए गए है, अर्थात बंधुता के माध्यम से व्यक्ति की गरिमा एवं राष्ट्र की एकता व अखंडता सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया है । विभिन्न भौगोलिक, सांस्कृतिक, धार्मिक विविधताओं से भरे देश के लिए बंधुता का होना अति आवश्यक है ।