ऋग्वैदिक काल – आर्थिक जीवन

ऋग्वैदिक आर्यों का जीवन अस्थायी था, अतः उनके जीवन में कृषि की अपेक्षा पशुपालन का अधिक महत्व था ।

पशुपालन

पशुओं में सर्वाधिक महत्वपूर्ण पशु गाय थी । गाय की गणना सम्पत्ती की रूप में की जाती थी । आर्यों की आर्थिक स्थिति का मूल आधार गाय ही थी ।
आर्यों का अधिकांश संघर्ष गायों के लिए ही होता था, ऋग्वेद में गायों के लिए “अधन्या” शब्दों का प्रयोग किया गया जिसका अर्थ है ना मारने योग्य (ना हत्या करने योग्य) ।
गायों के अलावा दूसरा पशु घोडा था ।

कृषि

कृषि ऋग्वैदिक आर्यों का गौण पेशा था, जुटे हुए क्षेत्र को क्षेत्र कहा जाता था, तथा उपजाऊ जमीन को उर्वरा कहा जाता था । ऋग्वेद में केवल एक ही अनाज जौ(राव) का उल्लेख मिलता है ।

वैदिक (ऋग्वेद) काल – आर्थिक जीवन

उद्योग

ऋग्वेद में बढई, बुनकर, चर्मकार, कुम्हार आदि शिल्पियों का उल्लेख मिलता है । ऋग्वेद में दो धातुओं का भी उल्लेख मिलता है :-
सोना – इसे हिरण्य कहा जाता था
अयस – इसकी पहचान संदिग्ध है, कुछ विद्वान इसे तांबा तो कुछ इसे कांसे से सम्बन्ध स्थापित करते है ।
ऋग्वेद में लोहा और चांदी का उल्लेख नहीं मिलता ।

व्यापार एवं वाणिज्य

ऋग्वेद में समुद्र का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है अतः यह माना जाता है की वैदेशिक व्यापार का ज्ञान इन्हें नहीं था । व्यापार वस्तु विनिमय प्रणाली पर आधारित थी
“पणी” नामक एक व्यापारी का उल्लेख मिलता है जो आर्यों की गायों की चोरी करता है
“निष्क” स्वर्ण आभूषण था जो की विनिमय हेतु प्रयोग होता था
“मना” तौल की ईकाई थी


करारोपण प्रणाली

ऋग्वैदिक काल में करारोपण प्रणाली का विकास नहीं था क्यूंकि इस समय स्थायी कृषि प्रणाली विकसित नहीं थी । रजा को प्रजा उपज का एक भाग स्वेच्छा से देती थी जिसे “बलि” कहा जाता था